अध्याय १: कमरा नंबर 210

      कमरा नंबर 210।

     "रूम सर्विस, सर।" आयुष ने दरवाजा खटखटाते हुए जोर से कहा।

     थोड़ी क्षण की चुप्पी के बाद भी आखिर जब अंदर से कोई जवाब नहीं आया, तब आयुष का धैर्य खत्म हुआ। सोचने लगा, "बड़े लोग है तो क्या हुआ? हम को भी क्या बाप का नौकर समझ के रखा है!" ये सब सोचते हुए उसने फिर से एक और बार दरवाजा खटखटाया, पर इस बार थोड़ा ज्यादा जोर लगाकर।

     "रूम सर्विस, सर जी।" आयुष बोला।

     फिर से वो अपने ख्यालों में खो गया। "इन लोग ने तो मेरा जीना हराम कर रखा है। सुबह से नौकरी लग जाए तो शाम तक घर लौटने नहीं देते। पता नहीं कब ये होटल से जाएंगे। अगर ये नहीं गए तो शायद में ही चला जाऊं।"

     अब भी अंदर से कोई जवाब नहीं आया। अब आयुष को काफी गुस्सा आ रहा था। आज उसके लिए बहुत बड़ा दिन था, और आज के दिन भी ये उसे देर करवा रहे थे।

     इस बार आयुष ने दरवाजा ना तो खटखटाया ना ही कुछ चिल्लाया। थोड़ा जोर से दरवाजे को धका देकर 210 रूम को उसने खोल दिया।

     अंदर जाकर उसने देखा कि कुछ पुस्तके रूम के अंदर जाने से पहले के कॉरिडोर में इधर उधर फैली हुई है। मन में ही सोचने लगा, "इनको पुस्तकों कि कोई कीमत नहीं, बस मुफ्त में मिल जाए तो सब कुछ इधर का उधर कर दें ये लोग।"

     उसने बाथरूम से पानी की आवाज़ सुनी और उसे पता चला कि किस वजह से रूम का दरवाज़ा कोई खोल नहीं रहा था। उसने सोचा की कोई नहा रहा होगा।

     पर जब कॉरिडोर को पार किए जब वो रूम में पहुंचा तो उसकी आंखे रूम का दृश्य देखकर ठंडी पड़ गई। उसका हाथ और पूरा शरीर कांपने लगा। आयुष वहीं पर खड़ा रह गया, जैसे की उसको लकवा न मार गया हो। उसे लगा पूरी दुनिया जैसे थम-सी गई है। उसको अपने दिल की धड़कन साफ सुनाई दे रही थी। पता नहीं किस वजह से ये धड़कने उसे सुनाई दे रही थी, उसने जो देखा उस वजह से या देखने के बाद जो दिल का हाल हुआ उस वजह से! 

     आयुष ने देखा कि एक युवक की लाश बिस्तर पे पड़ी है जो बिस्तर से आधी नीचे कि तरफ लटक रही है। उस युवक के सर में से खून बह रहा है और खून का एक छोटा-सा पोखरा भरा हुआ है। लाश के हाथ में एक तावीज बंधा हुआ है और दाएं हाथ में रोलेक्स की घड़ी में रात के आठ बज रहे हैं। उसे ये भी नहीं पता कि वो युवक कौन है और उसकी लाश यह बिस्तर पे क्या कर रही है!

     इतने में उसने एक गलती और कर दी। उसने टेबल पर हाथ रखा ताकि बेहोश होकर गिर ना पड़े। टेबल का सहारा लेने की वजह से टेबल पर रखी चीजें लाश के ऊपर गिरी। उसमें से टेबल पर रखा लाइटर सीधा उस खून के पोखरे में जा गिरा। सब चीजों को बचाने के लिए तुरंत वो लपका पर मानो जैसे आज उसकी चपलता गम खा गई हो। लाइटर को खून में से निकालने के लिए उसने अपने रुमाल को जेब से निकाला और हल्के से उसको उठाकर एक तरफ किया। 

     तभी अचानक से उस युवक की लाश में ना जाने कहां से जान आ गई, और उसने आयुष का हाथ पकड़ लिया। आयुष ने इतनी जोर से चिल्लाया की दो माले नीचे तक आवाज़ सुनाई दी। 

     उस युवक ने जिसमें अब आखरी जान बाकी थी कहा, "आर. जे.  ६०२...!" इतना कहकर उस युवक ने अपनी आंखे बंद कर ली और उसमे बची-खुची जान भी निकल गई। 

     अभी लाश देखने के सदमे से आयुष निकला ही था कि एक और सदमा आ गया। इस बार उसका हृदय बहुत तेजी से धड़कने लगा। आयुष ने सोचा की वह आज अपने डिनर के लिए दोस्तों के साथ ना जा सकेगा। पर वो किसी भी तरह यहां से सकुशल घर वापस लौटेगा। 

     तभी उसे सुनाई दिया कि कोई आवाज देकर उसे बुला रहा है। सीढ़ियों की तरफ से होटल मैनेजर हरजीत सिंह अहलूवालिया आते नजर पड़े। 

     अहलूवालिया ने आते ही कहा, "ओय्य खोत्या, में तेन्नू कबसे इधर उधर ढूंढ़ रह्या सी, तू कित्थे है, कहां जा रहा है कुछ बता के तो जाया कर।"

     अहलूवालिया आयुष को अपने बेटे की तरह रखते, कभी जरूरत पड़ी तो जोर से डांट भी देते। पर डांटने के बाद फिर से वही प्यार। अहुलवालिया साहब का कोई बेटा था नहीं, एक बेटी थी जो विदेश चली गई थी। उनको हमेशा से एक बेटा चाहिए था, ताकि वो भी अपने बेटे के साथ कंधे सटाकर घूम सके। ये कमी आयुष ने भर दी थी। 

     आयुष ने जवाब दिया, "अरे, अंकल! आप क्यों इतना घबराते हैं, में तो बस अपनी ड्यूटी की आखरी सर्विस देने आया था। उसके बाद मुझे अभी बांद्रा टर्मिनस जाना है, अपने दोस्त कुछ बारह साल बाद मिल रहे हैं।"

     हरजीत सिंह बोले, "अजी तु इतनी जोर से चिल्लाया की में नीचे काउंटर पर बैठे बैठे नींद में से उठ गया। मुझे लगा तुझे कुछ हो गया। ये कमबख्त लिफ्ट भी अभी बंद है, सीढ़ियां चढ़कर दूसरे माले तक आया।"

     आयुष ने कहा, "आपको अस्थमा की तकलीफ़ है पर आप कुछ समजते नहीं। आपको कितनी बार कहा है कि एक भी माला न चढ़िए, और आप दो माले चढ़कर आ गए।"

     हरजीत बोले, "ओए, मेन्नू तोहादा बड़ों खियाला है, तेरी फिक्र करता हूं इसलिए तो इतना चढ़कर आया हूं।"

     आयुष ने कहा, "आपको पता है ना मुझे कुछ नहीं होने वाला! आप क्यों मेरी फालतू में इतनी फिक्र करते है?"

     हरजीत बोले, "ओए गधे, ये तुझे फालतू की फिक्र लग रही थी! नीचे दो लोग भी बोले कि ये किस तरह की आवाज़ थी। तभी तो मैं दौड़ता हुआ चला आया। अब बता क्या तूने भूत देख लिया जो इतना जोर से चिल्लाया?"

     आयुष मन में सोचने लगा, "अगर भूत देख लिया होता, तो उससे भी निपट लेता! पर यहां तो कुछ और ही झोल चल रहा है।"

     हरजीत ने उसको झुंझलाकर फिर से पूछा कि वो क्यों चिल्लाया था।

     आयुष ने कमजोर बहाना बनाते हुए कहा, "अरे वो तो मैंने यहां एक चूहा देखा और अचानक से वो मेरी तरफ भागा। तो इसी हड़बड़ी में मुंह से चीख निकल गई।"

     हरजीत सिंह उसकी मसखरी करते हुए बोले, "यूं तो खुद को बड़ा बहादुर बनाके घूमता है, तोड़ी तो चूहे से फटती है।"

     आयुष ने कहा, "ऐसा कुछ नहीं है, अब आप जाइए और जाकर वापस अपने काउंटर पर सर रखकर सो जाइए। मैं यहां का काम निपटाकर सीधा घर चला जाऊंगा।"

     हरजीत सिंह ने कहा, "ठीक है, पर कल सुबह जल्दी आ जाना क्योंकि कल इनका आखरी दिन है होटल में। इनकी वजह से मुझे भी तो होटल में हाजराहजुर रहना पड़ता है। पूरी रात पार्टी में कहीं ऐसा ना हो कि तू सुबह यहां अपनी सूरत दिखाने आ ही ना सके।"

     आयुष ने कहा, "आप मेरी फिक्र ना करिएगा, में सुबह आपसे पहले होटल के रसोईघर में पहुंच जाऊंगा। सारी तैयारियां भी ही जाएंगी।"

     सब समझा-बुझाकर हरजीत सिंह को आयुष ने नीचे भेजा। उसे डर था कि कहीं ये सब रायता हरजीत सिंह की आंख न चढ़ जाए। उसने सारी बातें रूम से बाहर ही खत्म कर, उनको लौटाकर, सीधा रूम में भागा। 

     अचानक कुछ याद आया हो वैसे वापस दरवाजे की ओर भागा, रूम से निकलकर, लिफ्ट की ओर भागा। लिफ्ट का दरवाजा आधा अटका दिया, ताकि अगर लिफ्ट शुरू भी हो जाए तो कोई उसका इस्तेमाल ना कर सके। 

     वापस रूम में घुसकर उसने दरवाजा लॉक किया, अंदर आया और सोचने लगा कि अब क्या किया जाए। उसने सबसे पहले एक तौलिया बाथरूम से निकाला। पानी अब भी बहे ही जा रहा था, उसे बंद किया। 

     तौलिया लेकर युवक की लाश को बिस्तर के नीचे उतारा, और तौलिए पर उसका फटा हुआ सर रख दिया।

     ये सब करते हुए सोच रहा था कि अगर पुलिस को खबर हुई तो वह बुरा फंसेगा। पर उसके चालाक दिमाग ने अब काम करना शुरू कर दिया था। 

     एक और तौलिया उसने अपने शरीर पे लपेटा ताकि खून उसके कपड़ों पर दाग ना लगा सके। फिर टेबल के दराज में से रूम की तिजौरी की चाबियों का गुच्छा निकाला। इतनी हड़बड़ाहट में पता ही नहीं चल रहा था कि कौनसी चाबी से तिजौरी का ताला खुलेगा। 

     फिर अचानक एकदम से शांत हो कर लंबी सांस भरने लगा। जब हाथ कांपना बंद हुआ तो तिजौरी की लंबी चाबी ढूंढ़कर उसको खोला।

     तिजौरी में से तीन तौलिए और फर्स्ट-ऐड़ का डिब्बा निकाला। जब ये चीज़े लेकर वापस आया तो देखा कि जो तौलिया उसने सर के आसपास लपेटा था, वो पूरी तरह से लाल हो चुका था। अब उसने फटाफट हाथ चलाना शुरू किया। खून से भरा तौलिया निकालकर उसने लाश के फटे हुए सर पर पट्टी लगाना शुरू किया।

     फर्स्ट-ऐड़ के डब्बे में से लंबा पट्टा निकाल कर उसने सर के चारो तरफ से लपेट लिया। इतनी जोर से बांधा की किसी भी तरह खून बाहर ना आ पाए। उसके बाद एक और तौलिए को सर पे लपेट लिया। उसका नसीब अच्छा था कि सर के अलावा और किसी जगह से खून नहीं बह रहा था। 

     लाश को एक तरफ हटाकर आयुष खून का पोखरा साफ करने लगा। मन में ही गालियां देने लगा उसको जिसने ये सब किया था। घड़ी में देखा तो साढ़े आठ बज चुके थे। उसे किसी भी तरह बांद्रा टर्मिनस सवा नव बजे से पहले पहुंचना था। 

     सब खून अच्छी तरह से साफ करके उसने तौलियों को बाथरूम में ले जाकर अच्छी तरह से धो दिए। अपने आसपास लपेटे हुए तौलिए को उतारकर सब तौलियों के बीच रख दिया। सारे तौलिए, गीले और सूखे दोनों, ट्रॉली में रख दिए।

     सोचने लगा, अब लाश को कैसे ठिकाने लगाया जाए!

     कोई उपाय सोचते सोचते वो बिस्तर की चादर बिछाने लगा। उसने कई बार टीवी की सीरियल और पिक्चर में देखा था कि किस तरह खूनी लाश को ठिकाने लगाते है। पर अब जाकर एहसाह हुआ कि उनमें से कोई भी तरीका असली समय में काम नहीं आता। अब उसका दिमाग फटने लगा। डरने उसके दिमाग पर कब्जा कर लिया। पर आयुष इस तरह का आलतू-फालतू लड़का नहीं था जो सहमकर रह जाए।

     उसने तुरंत एक चद्दर तिजौरी से निकाली और फर्श पे बिछा दी। युवक की लाश को उठाकर चद्दर पे डाल दिया। चद्दर को गोल घुमाकर उसकी गठरी बांधी। गठरी को रखा ट्रॉली के निचले हिस्से पर और उस पर पर्दा डाल दिया। ट्रॉली में ऊपर तौलिया, रात का खाना (जो कि 210 में रुकने वाले मेहमान के लिए लाया था) और नीचे लाश लेकर वो रूम से बाहर निकला। 

     ट्रॉली इतनी भारी हो चुकी थी कि आयुष ने सोचा, "कम से कम इस आदमी का वजन पचहत्तर से अस्सी किलो जितना तो होगा ही।"

     रूम से बाहर निकलकर सीधा ट्रॉली को लिफ्ट की तरफ धकाया और अटका हुआ दरवाज़ा खोलकर ट्रॉली लेकर लिफ्ट में धंस गया। लिफ्ट में ग्राउंड का बटन दबाकर नीचे बैठ गया और जोर जोर से लंबी सांस लेने लगा।

     आयुष को लगा अब सब कुछ ठीक हो गया है, सारी परिस्थिति अब उसके नियंत्रण में है। पर वो नहीं जानता था कि रूम में एक कैमरा अपनी एक आखरी बीप के साथ पूरा हालहवाल रिकॉर्ड करके बंद हो गया था, जो आने वाले समय में नियंत्रण किसी और के हाथों में देने वाला था, और ना जाने उससे क्या क्या करवाने वाला था।


आगे की कहानी अगले ब्लॉग में जो कि अगले शनिवार को प्रकाशित किया जाएगा। इस ब्लॉग को subscribe करें और पढ़े आनेवाली आगे की कहानी।


Episode 2: टैक्सी आर. जे. 6025 

Episode 3: पार्टी 

Episode 4: कौन 

Episode 5: तीन टुकड़े लाश के!

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4 comments

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Unknown
admin
2:09 pm, अगस्त 22, 2020 ×

Bro excellent stroy ..plz next blog upload... I m waiting ....

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बेनामी
admin
3:18 pm, अगस्त 22, 2020 ×

Saras

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Akash Macwan
admin
7:55 pm, अगस्त 22, 2020 ×

Next Saturday...stay tuned

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